बैंक के पीओ की सर्विस छोड़ी, ऑर्गेनिक खेती की, किसानों का ग्रुप बनाकर मार्केटिंग की, सालाना 2 करोड़ का टर्नओवर खड़ा किया

गांव का नाम ककनार। जिला बस्तर। राज्य छत्तीसगढ़। जब भी इस तरह के स्थानों का नाम आता है तो लोगों के जेहन में सीधे-सीधे नक्सलियों की एक छवि उभरती है। छत्तीसगढ़, झारखंड जैसे इलाकों में नक्सली घटना आम बात है। इसी ककनार के पास झीरम इलाका है। यहां पर ही कुछ समय पहले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता वीसी शुक्ल सहित कई नेताओं की नक्सलियों ने हत्या कर दी थी। लेकिन यहीं से एक नाम और आता है। वह है डॉ. राजाराम त्रिपाठी का। ए ग्रेड की बैंक की सर्विस छोड़ कर डॉ. त्रिपाठी इस समय किसानी कर रहे हैं। सालाना 2 करोड़ रुपए का टर्नओवर है।  

प्रोफाइल-  

डॉ. राजाराम त्रिपाठी ने ने बस्तर से ही पढ़ाई की और वे कॉलेज में प्रोफेसर भी बन गए। इसके बाद 1990 के दशक में एसबीआई में पीओ की नौकरी शुरू की। लेकिन पीओ की नौकरी उन्हें नहीं जमी और उन्होंने बैंक से इस्तीफा देकर खेती किसानी का काम शुरू किया। 

कारोबार- हर्बल और ऑर्गेनिक खेती करते हैं। इसमें काली मिर्च, निर्यात वाली फसलें शामिल हैं। जो नर्सरियां गायब हो चुकी हैं उनको तैयार करते हैं। धान गेहूं की बजाय हाई वैल्यू वाली खेती पर फोकस करते हैं। आदिवासी परिवारों के साथ मिलकर जंगलों से सामग्रियों की तैयारी करते हैं। 

त्रिपाठी पिछले 20 सालों से यह काम कर रहे हैं और रेवेन्यू सालाना 2 करोड़ रुपए है। पूरे ग्रुप का रेवेन्यू 60 करोड़ रुपए है। त्रिपाठी जब बैंक में काम कर रहे थे तब उनके पास दरअसल खेती की वसूली का काम दिया गया था। लेकिन जब वे किसानों से मिले और खेती में दिए जाने वाले कर्ज की जांच की तो उनको लगा कि जो भी कर्ज ट्रैक्टर के नाम से दिए जा रहे हैं, वह बस किसानों को फंसाने के नाम पर दिया जा रहा है। उनका मानना था कि खेती करने के लिए ट्रैक्टर की बिलकुल आवश्यकता नहीं है।  

वे कहते हैं कि हर बैंक में प्रोजेक्ट का एक असेसमेंट पेपर बनता है। हमने जब ट्रैक्टर का असेसमेंट देखा तो यह गलत लगा। क्योंकि खेत के लिए छोटे यंत्र ही काफी हैं। उसके लिए 7 लाख रुपए के ट्रैक्टर की जरूरत नहीं है। क्योंकि 7 लाख रुपए का ब्याज और मूलधन भरने में ही पूरी खेती का लाभ चला जाता है। बल्कि गाय लाकर उसका दूध बेचना उससे ज्यादा फायदेमंद था।  

हमने देखा कि सारे आंकड़े फर्जी दिख रहे थे। गाय लाकर दूध निकालते हैं तो उससे फायदा होगा। बैंक हमारे यहां खेती को बढ़ाने के लिए नुकसान कर रहा है। क्योंकि जिस के लिए फाइनेंस हो रहा है वह बाजार के चंगुल में फंस रहा है। ट्रैक्टर की बजाय छोटे यंत्र से अच्छा काम हो सकता है।  

मुझे लगा कि ट्रैक्टर एक एनपीए प्वाइंट है। इसके बाद मैने नाबार्ड को लिखा कि यह नुकसान हो रहा है। नाबार्ड ने मुझे मुंबई बुलाया और कहा कि आंकड़ों के साथ साबित करना होगा कि यह गलत है। हमने आंकड़ों के साथ प्रजेंटेशन दिया कि यह गलत है। नाबार्ड ने माना कि जमीन को असेट माना जाए तो भी घाटा है। पर यह समस्या जमीनी स्तर पर थी। नाबार्ड ने यह कि समस्या आपने बताई तो हल भी आपको बताना होगा। इसी के बाद लगा कि मुझे खेती में आना चाहिए और मैने बैंक से इस्तीफा दे दिया। 

बैंक में मैं 1990 में पीओ के रूप में जुड़ा और 2000 में इस्तीफा दिया। बैंक ने इस्तीफा स्वीकार करने से मना कर दिया। 6 महीने तक बैंक ने स्वीकार नहीं किया। फिर एच आर ने बुलाया और जब वह मेरी खेती की प्लान सुना तो उसने मेरा इस्तीफा मंजूर कर लिया। 

साल 2001 में हमने ऑर्गेनिक खेती की योजना बनाई। सर्टिफाइड ऑर्गेनिक का पहला सर्टिफिकेट सरकार से हमें मिला। हर्बल की खेती केवल दवाइयों तक नहीं, बल्कि प्राकृतिक इंग्रिडिएंट में हर जगह जरूरी है। कलर से लेकर हर जगह तक इसकी जरूरत है। बड़ी कंपनियां अब केमिकल की बजाय हर्बल पर फोकस कर रही हैं। इसमें भारत की संभावना ज्यादा है। पहले एक एकड़ में खेती करते थे। अब हम 1100 एकड़ में खेती कर रहे हैं। 

वे कहते हैं ति यह आप पर निर्भर है कि आप किस फसल को करना चाहते हैं। इसमें 50 हजार से लेकर एक लाख रुपए तक की शुरुआती पूंजी से काम शुरू हो सकता है। रिटर्न के बारे में वे कहते हैं कि कोई फसल 6 महीनों में रिटर्न देती है कोई एक साल में कोई तीन साल में भी रिटर्न देती है। आपके पास शुरुआती पूंजी और मार्केट होना चाहिए। उसके बाद आप शुरू कर सकते हैं। जमीन और बेसिक इंफ्रा और मार्केटिंग के लिए किसी के साथ जुड़कर काम करना चाहिए। 

बाजार की तलाश कैसे करें- 

बाजार की तलाश के लिए आप किसी उस ग्रुप से जुड़िए जो पहले से बाजार में बना हुआ है। ऐसे ढेर सारे किसानों के ग्रुप हैं जो डायरेक्ट बाजार में सूह बनाकर माल बेचते हैं और पैसे सीधे सभी किसानों के अलग-अलग खातों में आते हैं। इसमें कोई बिचौलिया नहीं होता है।  

वे कहते हैं कि 2004 से विदेश यात्रा हमने शुरू की। हम 34 देशों में गए लेकिन सीधे खेतों में ही पहुंचे। हमने खेती में देखा कि हाई वैल्यू वाली खेती क्या हो रही है। उसके बाद हमने फिर उसी आइडिया को यहां पर अपनाया। एक ऐसी खेती जिसकी मांद विदेशों में भी हो। अगर काम करना है घर बनाना है, बच्चों को पढ़ाई कराना है तो धान गेहूं से बाहर निकल कर हाई वैल्यू की खेती करनी होगी। 

डॉ. राजाराम त्रिपाठी इस समय खेती के बल पर कई किसानों के समूहों से जुड़कर काम कर रहे हैं। वे 45 किसान संगठनों के महासंघ के राष्ट्रीय संयोजक भी हैं। वे बताते हैं कि 100 किसानों को जोड़कर हम मार्केट कर रहे हैं। बेस्ट क्वालिटी और बल्क क्वांटिटी पर फोकस होता है। जैसे एक ट्राली गोबर 3000 रुपए का होता है। लेकिन वही 5 किलो होगा तो कचरे के रूप में फेंक दिया जाता है। इसीलिए बल्क क्वांटिटी पर फोकस होता है। हमने सेंट्रल हर्बल एग्रो मार्केटिंग फेडरेशन फोरम बनाया। इसके जरिए हमने लाखों लोगों को जोड़ा है। इसके जरिए हम विदेशों में माल बेचते हैं।  

परेशानी – 

सबसे बड़ी मार्केटिंग की परेशानी थी क्योंकि मार्केटिंग स्थापित नहीं थी। लोन की परेशानी थी। सरकार के कानून स्पष्ट नहीं है। जंगल विभाग भी परेशान करता है। एक्सपोर्ट में अन्य देशों के दूतावास अपने व्यापारियों को मदद करते हैं, लेकिन हमारे देश में नौकरशाही और दूतावास कोई मदद नहीं करता है। विदेश की जड़ी हमारे बाजार में 16 हजार करोड़ का कारोबार करती है पर हमारी जड़ी बूटी को हम स्थापित नहीं कर पाए। उदाहरण के तौर पर विदेशी जड़ी जिनसिंग की काफी मांग है, पर हमारी सफेद मूसली की मांग कम है। जबकि यह ज्यादा कारगर है। ढेर सारे साइंटिस्ट इसे संदेहास्पद बताते हैं जो एक साजिश है। 

बैंक के पीओ की सर्विस छोड़ी, ऑर्गेनिक खेती की, किसानों का ग्रुप बनाकर मार्केटिंग की, सालाना 2 करोड़ का टर्नओवर खड़ा किया

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